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उ॒प॒प्र॒यन्तो॑ऽअध्व॒रं मन्त्रं॑ वोचेमा॒ग्नये॑। आ॒रेऽअ॒स्मे च॑ शृण्व॒ते ॥११॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उ॒प॒प्र॒यन्त॒ इत्यु॑पऽप्र॒यन्तः॑। अ॒ध्व॒रम्। मन्त्र॑म्। वो॒चे॒म॒। अ॒ग्नये॑। आ॒रे। अ॒स्मेऽइत्य॒स्मे। च॒ शृ॒ण्व॒ते ॥११॥

यजुर्वेद » अध्याय:3» मन्त्र:11


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब अगले मन्त्र में ईश्वर ने अपने स्वरूप का प्रकाश किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अध्वरम्) क्रियामय यज्ञ को (उपप्रयन्तः) अच्छे प्रकार जानते हुए हम लोग (अस्मे) जो हम लोगों के (आरे) दूर वा (च) निकट में (शृण्वते) यथार्थ सत्यासत्य को सुननेवाले (अग्नये) विज्ञानस्वरूप अन्तर्यामी जगदीश्वर है, इसी के लिये (मन्त्रम्) ज्ञान को प्राप्त करानेवाले मन्त्रों को (वोचेम) नित्य उच्चारण वा विचार करें ॥११॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को वेदमन्त्रों के साथ ईश्वर की स्तुति वा यज्ञ के अनुष्ठान को करके जो ईश्वर भीतर-बाहर सब जगह व्याप्त होकर सब व्यवहारों को सुनता वा जानता हुआ वर्त्तमान है, इस कारण उससे भय मानकर अधर्म करने की इच्छा भी न करनी चाहिये। जब मनुष्य परमात्मा को जानता है, तब समीपस्थ और जब नहीं जानता तब दूरस्थ है, ऐसा निश्चय जानना चाहिये ॥११॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथेश्वरेण स्वस्वरूपमुपदिश्यते ॥

अन्वय:

(उपप्रयन्तः) उत्कृष्टं निष्पादयन्तो जानन्तः (अध्वरम्) क्रियामयं यज्ञम् (मन्त्रम्) वेदस्थं विज्ञानहेतुम् (वोचेम) उच्याम। अयमाशिषि लिङ्युत्तमबहुवचने प्रयोगः। लिङ्याशिष्यङ् [अष्टा०३.१.८६] इत्यङि कृते छन्दस्युभयथा [अष्टा०३.४.११७] इति सार्वधातुकमाश्रित्येय्सकारलोपौ। वच उम् [अष्टा०७.४.२०] इत्यङि पर उमागमश्च। (अग्नये) विज्ञानस्वरूपायान्तर्यामिने जगदीश्वराय (आरे) दूरे। आर इति दूरनामसु पठितम्। (निघं०३.२६) (अस्मे) अस्माकम्। अत्र सुपां सुलुग् [अष्टा०७.१.३९] इत्यामः स्थाने शे आदेशः। (च) समुच्चये (शृण्वते) यो यथार्थतया शृणोति तस्मै। अयं मन्त्रः (शत०२.३.४.९-१०) व्याख्यातः ॥११॥

पदार्थान्वयभाषाः - अध्वरमुपप्रयन्तो वयमस्मे अस्माकमारे दूरे चात् समीपे शृण्वतेऽग्नये जगदीश्वराय मन्त्रं वोचेमोच्याम ॥११॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैर्वेदमन्त्रैरीश्वरस्य स्तुतियज्ञानुष्ठाने कृत्वा य ईश्वरोऽन्तर्बहिश्चाभिव्याप्य सर्वं शृण्वन् वर्तते, तस्माद् भीत्वा न कदाचिदधर्मं कर्त्तुमिच्छापि कार्या। यदा मनुष्य एतं जानाति तदा समीपस्थो यदैनं न जानाति, तदा दूरस्थ इति वेद्यम् ॥११॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांनी वेदमंत्रांद्वारे ईश्वराची स्तुती व यज्ञाचे अनुष्ठान केले पाहिजे. ईश्वर सर्वत्र व्याप्त असून, तो सर्व व्यवहार जाणतो हे समजावे. त्याचे भय बाळगावे व कधीही अधर्माची इच्छा करू नये. मनुष्य जेव्हा परमेश्वराला जाणतो तेव्हा तो त्याच्याजवळ असतो व जेव्हा तो त्याला जाणत नाही तेव्हा त्याच्यापासून दूर असतो हे निश्चितपणे जाणले पाहिजे.